याद रखे – आपकी हर हरकत पर उसकी नजर है
आस्तिक हु या नास्तिक यह मैं खुद नहीं जानता लेकिन ईश्वरीय शक्ति में विश्वास करता हु. इस विश्वास के पीछे कुछ कारण है जिनपर पहले लिख चूका हु – इस लेख में. केवल इसलिए की हम उसे देख नहीं सकते हम ऐसी शक्तियों के अस्तित्व को नकार नहीं सकते. इस विषय पर कुछ तर्क इस लेख में दिए है. इसके बाद बारी आती कुछ व्यक्तिगत अनुभवों की जिनके कारण मेरा यह विश्वास बना की कोई ईश्वरीय शक्ति है जो हम पर नजर रखती है, जो हमें गलतियों की सजा देकर उन्हें सुधारने का इशारा करती है.
मेरी याददाश्त बहोत अच्छी नहीं है लेकिन जीवन के कुछ अनुभव न जाने क्यों हमेशा के लिए याद हो जाते है. ऐसे ही कुछ बचपन के किस्से बयान कर रहा हु.
शायद मैं उस समय पांचवी या छठी कक्षा में था और हम स्कुल के द्वारा आयोजित एक पिकनिक के लिए चिखलदरा नामक एक पर्यटन स्थल गए थे. रास्ते में जैनियों का तीर्थस्थान मुक्तागिरी आता है तो वहा दर्शन के लिए रुके. मंदिर के बाहर कुछ लोग ठेलो पर नकली मोतियों की मालाये बेच रहे थे और हमारे मित्रो ने उन्हें घेर रखा था. बेचने वाले की नजरो से बच कर कई मित्रो ने मालाये चुराई और मैंने भी एक माला अपनी जेब में धर ली बिना उसे पैसे दिए. वापस लौटते समय मेरे हाथ में एक टोर्च था (रास्ते में जानवर देखने के लिए). नींद कब लगी पता नहीं पर जब सुबह उठा तो मेरे हाथ में वो टोर्च नहीं था. बहोत ढूंडा पर मिला नहीं. शायद उस समय यह सोचते हुए की मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ मुझे जवाब मिला हो “क्योंकि तुमने माला चुराई थी” इसलिए मुझे यह वाकया याद रह गया.
उसी उम्र में स्कुल की और से खेलने के लिए अमरावती गए थे. बस में मेरी नजर पड़ी दो सिक्को पर – एक पच्चीस पैसे का और एक दस पैसे का. मैंने पैसे उठा कर जेब में रख लिए. घर में सिखा था की इस तरह मिले पैसो को भगवान् को चढ़ा देना चाहिए. सोचा तो याद आया की बस रवाना होने से पहले एक अँधा भिकारी भिक मांगने आया था, शायद ये पैसे उसी के हो. मैंने पैसे जेब में रख लिए यह सोचकर की बस रुकने के बाद किसी भिकारी को दे दूंगा – नियत ख़राब नहीं थी लेकिन मैं भूल गया. शाम को लौटते समय बस में कंडक्टर टिकट काटने आया तब मैंने अपने चोरखीसे (मराठी शब्द है एक ऐसी जेब के लिए जो चोरो से बचने के लिए पेंट के अन्दर की और बनी होती है). जेब से पैसे गायब थे, जेब कटी नहीं थी. संयोग की बात है की मेरी उस जेब में कुल 35 रुपये ही थे जो अब गायब हो चुके थे और शायद ये उन 35 पैसो की सजा थी जो मैंने अनजाने में जेब में रख लिए थे.
हाई स्कुल में पढ़ते वक्त का एक वाकया याद है जब हमारी स्कुल में एक आदमी स्याही वाले पेन बेचने आया था. कई मित्रो ने वो पेन ख़रीदे. सभी पेन एक जैसे थे लेकिन मेरे पेन का वो हिस्सा जो जेब में लटकाया जाता है थोडा ढीला था. मैंने अपनी अक्ल दौड़ाई और बातो बातो में अपने एक मित्र से उस पेन को बदल लिया. थोड़ी देर बाद वही मित्र मेरे पास आया यह कहते हुए की उसका पेन खुल नहीं रहा. मैंने अपनी ताकत लगा कर खोलने की कोशिश में उसे तोड़ दिया. संस्कार ऐसे थे की मेरे हाथो यदि किसी का नुकसान हुआ है तो मुझे वो नुकसान झेलना चाहिए इसलिए तुरंत अपना पेन उसे दे दिया. बाद में सोचा की मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? तो जवाब मिल गया.
ऐसे और भी अनुभव रहे होंगे लेकिन एक अनुभव मुझे हमेशा याद रहेगा और शायद उसने मुझे जिंदगी भर के लिए सबक दे दिया. 12 वी कक्षा के बाद मेडिकल कॉलेज की एडमिशन के लिए पापा के साथ मुंबई गया था. उस बार मेरा एडमिशन नहीं हो पाया, पापा के जीवन का एक ही उद्देश था की मेरा बेटा डॉक्टर बने और शायद मैं नहीं बन पाउँगा ऐसा उस दिन लगा. पापा के साथ उस दिन मुंबई में चौपाटी पर घूमकर वापस आने के लिए रवाना हुआ. ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिल पाया था. पापा कई बार सफ़र कर चुके थे और मैं शायद पहली बार बिना रिजर्वेशन था. हम लोग रिजर्वेशन वाले डिब्बे में बैठ गए. ऐसे मौको पर पापा टीटी को पेनल्टी के पैसे देकर रिजर्वेशन के डिब्बे में निचे सो जाया करते थे और इस बार भी वही करना था. जहा हम बैठे उसी केबिन में एक वृद्ध महिला 2 अन्य युवाओ के साथ बैठी थी. ट्रेन रवाना होने का समय हो गया और वह चिंतित थी. उसने उन युवाओ से मराठी में पूछा की वो लोग नहीं आये. 2 और लोग अपेक्षित थे और उनके न आने से महिला चिंतित थी. उन्होंने जवाब दिया की शायद वो कल्याण से बैठ जायेंगे आप चिंता न करो. ट्रेन रवाना हो गयी और मेरे दिमाग का शैतान भी दौड़ाने लगा. मन में विचार आया की वो 2 लोग न आये तो अच्छा होगा, हम दोनों को यह सिट मिल जाएगी. कल्याण में वो दोनों आ गए और हम पेनल्टी के पैसे देकर रिजर्वेशन के डिब्बे में निचे चद्दर बिछा कर सो गए.
करीब 3-4 घंटे बाद अचानक नींद खुली. ट्रेन नाशिक स्टेशन पर रुकी हुई थी. पापा सोये हुए थे. मैं ट्रेन से निचे उतरा और गेट के ठीक सामने एक कॉफ़ी वाले के पास गया – दुरी मुश्किल से 10 कदम की थी. मैं अकेला ही ग्राहक था और कॉफ़ी तुरंत हाथ में आ गई. पलट कर देखा तो मेरी ट्रेन गायब थी – दूर दूर तक कही ट्रेन नहीं थी. मुझे आज तक यह पता नहीं की इतनी जल्दी ट्रेन कैसे निकल गई, ट्रेन निकली तो मुझे आवाज क्यों नहीं आई, कॉफ़ी वाले ने मुझे क्यों नहीं कहा की ट्रेन निकल रही है? मैं घबरा गया, कुछ लोगो ने स्टेशन मास्टर के पास मुझे पहुँचाया. जेब में पैसे नहीं थे लेकिन स्टेशन मास्टर ने अगली ट्रेन जो करीब आधे घंटे बाद आती है, बिना टिकट मुझे सफ़र करने की व्यवस्था करा दी. सुबह अपने स्टेशन मुर्तजापुर पहुंचा तो गेट पर ही एक कुली मेरे पास आया और पूछा “क्या आप पारीक हो?” मैंने कहा हां. वो मुझे अपने साथ मेरे पापा के पास ले गया. पापा ने कुछ नहीं पूछा और हम घर के लिए रवाना हो गए. कई दिनों बाद पापा ने बताया की रात के वो 8 घंटे उनके जीवन के सबसे बुरे निकले. मेरे उतरने के थोड़ी ही देर बाद उनकी नींद खुल गई थी. मुझे न देखकर उन्होंने थोड़ी देर इन्तेजार किया, फिर ट्रेन के सभी डिब्बो में मुझे खोजा. कही पर मुझे न पाने के बाद उन्हें यही लगा की शायद मेडिकल में एडमिशन न मिलने के कारण या तो मैंने आत्महत्या कर ली या मैं घर छोड़ कर चला गया. अगली ट्रेन में शायद मैं लौट आवु यही आखिरी उम्मीद थी लेकिन उनकी हिम्मत नहीं थी उस ट्रेन को बिना मेरे स्टेशन से निकलते देखने की. इसलिए कुली को भेजा था.
वो दो युवा न आये तो बेहतर हो यह सोचते वक्त मैंने ये नहीं सोचा की ऐसी स्थिति में उस महिला पर क्या गुजरेगी. वही अनुभव मेरे पिता को हुआ. ऐसे अनुभव उसके बाद होना बंद हो गए. ऐसा नहीं की बाद में मैंने गलतिया नहीं की. या तो मेरी उम्र हो गई थी और सिखने की इसलिए सिखाने वाले सबक देना बंद कर दिया या शायद इस घटना के बाद मैंने ऐसा कोई बड़ा जुर्म न किया हो.
मुझे पूरा विश्वास है की कोई शक्ति है जो हर हरकत पर नजर रखती है. आप गलती करो तो आप को सजा भी देती है. जरुरत है उस इशारे को समझने की. अक्सर हम ऐसी घटनाओ का दोष अपनी किस्मत को दे देते है और जो अच्छा हो उसका श्रेय खुद ले लेते है.