अविष्कार के प्रयास में पहला विफल प्रयोग
शायद उस समय मैं 7 वीं कक्षा में था, 8 वीं में नहीं था ये पक्का याद है। निश्चित उस ज़माने में पढाई का सिलेबस आज के मुकाबले काफी सरल हुआ करता था। लेकिन सिलेबस के अलावा सीखने को बहोत कुछ था जो शायद आजकल कम हो गया है।
महाराष्ट्र में गणपति स्थापना और 10 दिन बाद उसका विसर्जन होता है। गली गली में गणपति स्थापना होती है। भगवान की मूर्ति के पीछे एक चक्र अक्सर होता है जो 3 वाल्ट की बैटरी से चलता है। हमारे बचपन में उस तरह की साइकिल भी हुआ करती थी जिसके सामने हेडलाइट होता था। और बल्ब चलता था डाइनेमो पर। पिछले पहिये के साथ एक मशीन लगी होती थी जो घूमते पहिये के साथ घूमती और उसके घुमने से बिजली बनती जिससे बल्ब जलता। जीतनी तेजी से पायडल घुमाओ उतनी जादा बिजली और उतना तेज बल्ब जलेगा।
भले ही स्कूली पढाई में न पढ़ाया गया हो लेकिन इतना तो खेल खेल में सिख गए थे की बिजली मोटर की सहायता से चक्र को घुमा सकती है और घूमता चक्र डाइनेमो की सहायता से बिजली बना सकता है।
एक और चीज सिखने को मिली साइकिल को देख कर। आपने गौर किया हो तो साइकिल में जहा पायडल लगा होता है वहां एक बड़ा सा चक्का होता है जिसपर चैन लगी होती है और चैन के दूसरे छोर पर होता है साइकिल का पिछला पहिया। और वहां का चक्का काफी छोटा होता है। जब आप पायडल से चक्र को एक बार घुमाओ तो पिछले पहिये वाला चक्र 3-4 बार घूम जाता है।
इन तीनो बातो को जोड़कर बना मेरा पहला प्रयोग। साइकिल के चक्र और चैन की जगह काम आई टेप रिकॉर्डर की पुलि (छोटी बड़ी दोनों साइज़ की) और पुलि पर लगाने वाला रबर का बेल्ट। इस पर शक न करें उस उम्र में मैं टेप रिकॉर्डर, रेडियो, घडी इत्यादि खोल लिया करता था। यह अलग बात है की खोली हुई मशीन अक्सर किसी काम कि नहीं रहती थी।
मोटर पर एक बड़ी पुलि लगाई, और डाइनेमो पर छोटी। दोनों को एक कार्ड बोर्ड पर फिक्स किया और दोनों पुलियों को बेल्ट से जोड़ दिया। अब जब मोटर घुमेगी तो डाइनेमो भी घूमेगा, घूमने की गति मोटर से तिगुनी होगी। दोनों पुलि के सामने खिलोने वाले पंखे के पत्ते लगा दिए। और चमत्कारिक मशीन तैयार हो गई। अब इस मोटर में मैं 3 वाल्ट का सप्लाई दूंगा। 2 पंखे चलेंगे और डाइनेमो से बिजली बनेगी और शायद 3 वाल्ट से जादा।
पास के रेडियो मैकेनिक का वाल्टमीटर काम आया। नतीजे चमत्कारिक थे। वास्तव में डाइनेमो से बिजली बन रही थी और वो भी 4.5 वाल्ट। ये देख मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। मैंने एक ऐसी मशीन बना ली जो दो पंखे चलाती है और साथ में जीतनी लगी उससे जादा बिजलि भी। उस समय मेरे पैर जमीन पर नहीं थे, मानो मुझे भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिलने व
फिर कोशिश शुरू हुई की इसी 4.5 वाल्ट को फिर मोटर में दिया जाए ताकि यह मशीन बिना बिजली के चलने वाला पंखा बन जाये। कुछ सालो बाद पता लगा इसे Perpetual Motion कहते है जिसे पाना असंभव है। खैर वो प्रयास सफल नहीं हुआ। फिर सोचा इस 4.5 वाल्ट से कोई छोटा बल्ब जला कर देखे, वो भी नहीं जल पाया। अब समस्या उत्पन्न हो गई। बिजली बन रही है लेकिन उसका उपयोग नहीं कर पा रहा। स्कुल में विज्ञानं के शिक्षक से चर्चा की। प्रयोग पर उन्हें भी बड़ा अचम्भा हुआ। लेकिन सवाल वही था इस बिजली का उपयोग क्यों नहीं कर पा रहे। हाई स्कुल सेक्शन से भौतिकी के शिक्षक को बुलाया गया। उनकी समझ नाही आया तो फिर जूनियर कॉलेज के एक शिक्षक की मदद ली। थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने कहा इसमे बाहर निकलने वाला करंट चेक करो। अम्मीटर से करंट चेक किया गया, उन्हें जवाब मिल गया। इस प्रयोग में वाल्ट तो बढ़ा लिया गया लेकिन करंट बहोत कम हो गया जिसका कोई उपयोग नहीं। उस समय तक ये सब सिलेबस में पढ़ाया नहीं गया था। मैंने कई सवाल पूछे लेकिन इस प्रयोग में करंट बढ़ाने की कोई सम्भावना नहीं थी।
आगे भौतिक शास्त्र में जब वोल्टेज, करंट रेजिस्टेंस के बिच का संबंध पढ़ाया गया तब बाते साफ हुई। फिर Law of conservation of energy पढ़ा तब समझ आया की ऊर्जा न पैदा होती है न नष्ट वो सिर्फ अपना रूप बदलती है।
बचपन का यह पहला बड़ा प्रयोग हमेशा याद रहेगा क्योंकि यह वो दिन था जब मैंने पहली बार कुछ नया किया था। विफल ही सही प्रयोग अच्छा था। विज्ञानं की दुनिया में मेरा आविष्कारी सफर यहाँ से शुरू हुआ. कई बार विफलता मिली तो कुछ सफलताएं भी. समय समय पर इन यादो को कागज पर उतारने का प्रयास करता रहूँगा.