अंधभक्त आपका सबसे बड़ा शत्रु है
विषय पर आने से पहले एक सन्त की सच्ची कहानी सुनाऊंगा। अमरावती, महाराष्ट्र के दर्यापुर नामक छोटे से गाँव में मेरा बचपन बिता। पहली कक्षा से 12 कक्षा तक मैंने इसी गाँव की सरकारी स्कुल में शिक्षा ली, अधिकतर मराठी माध्यम में। दर्यापुर तहसील के एक छोटे से कस्बे (खेड़े) शेणगांव में जन्मा देबुजी झिंगराजी जनोरकर पूरी दुनिया में संत गाडगे महाराज के नाम से जाना जाता है। संभव है अपने यह नाम कभी न सुना हो। गूगल की सहायता से आप इसके बारे बहोत कुछ जान पाएंगे।
फ़रवरी 23, 1876 को एक गरीब धोबी परिवार में जन्मा यह साधारण व्यक्ति एक संत बन गया। बाबासाहेब आंबेडकर, संत तुकाराम, लोकमान्य तिलक जैसे लोग भी एक संत की तरह इनका सम्मान करते थे।
1 फ़रवरी 1905 को अपनी पत्नी और 4 बेटियो का त्याग कर देबुजीने सन्यास ले लिया। कुछ समय भ्रमण और वनवास में बिताने के बाद वो समाज सुधार के कार्य में लग गया। समाज में व्याप्त रूढ़ियों के खिलाफ उसने जन जागरण का कार्य शुरू किया। एक फ़क़ीर की तरह फटे हुए कपडे, हाथ में भिक्षा मांगने के लिए एक पात्र (जिसे मराठी में गाडगे कहते है) और दूसरे हाथ में एक झाड़ू यह उसका पहनावा था। जिस गांव में जाता वहा सबसे पहले वो पुरे गांव की सफाई करता। फिर 5 घरो से भिक्षा मांग उसी भिक्षा पात्र में खाना खाता। यही पात्र धुप से बचने के लिए टोपी की तरह इस्तेमाल करता।
जनजागरण के लिए इस अनपढ़ व्यक्ति ने स्थानीय भाषाओ में कई गीत लिखे जिन्हें कीर्तन कहा जाता है। बहोत जल्द देबुजी गाडगे बाबा के नाम से जाने जाना लगा।
समाज से अज्ञान, अंधश्रद्धा और पुरानी रूढ़ियों को मिटाने की कोशिश में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगाया। अपने कीर्तन के माध्यम से वो बड़ी सीधी भाषा में लोगो को समझाने का प्रयास करते। आस्तिक हो या नास्तिक वो अपने तर्कों से सभी को प्रभावित कर देते। अपने कीर्तन में वो बड़ी सरल बाते बताते – झूट मत बोलो, चोरी मत करो, कर्ज मत लो, भगवान के नाम पर मासूम जानवरो की हत्या मत करो, छुआछुत मत करो।
ईश्वर पत्थर में नहीं इंसान में है, पत्थर की पूजा मत करो। वो हमेशा कहते मेरे गुरु संत तुकाराम है, मैं किसी का गुरु नहीं न कोई मेरा शिष्य है।
उनकी मुख्य शिक्षा होती थी – मूर्ति पूजा मत करो। यदि ईश्वर की पूजा करना चाहते हो तो – भूखे को खाना दो, प्यासे को पानी दो और नंगे को वस्त्र। गरीब बच्चों को पढाई मे मदद करो, बेघरो को घर दो और बीमार को दवा। बेरोजगार को रोजगार में मदद करो, पशु पंछियो (गूंगे जानवरो) पर दया करो गरीब बच्चों की शादी कराओ और दिन दुखियो की हिम्मत बढ़ाओ। यही ईश्वर की पूजा है।
उन्होंने एक आदमी को एक कुत्ते के पीछे डंडा लेकर दौड़ते देखा। उसे रोककर पूछा इसे क्यों मार रहे हो? उस कुत्ते की गलती यह थी को वो जिस पत्थर पर पेशाब करने जा रहा था वो इस आदमी के लिए भगवान था, वो उसपर फूल चढ़ा उसकी पूजा करता था। गाडगे बाबा ने उससे कहा ये बेचारा गूंगा जानवर क्या जाने की इंसानो का भगवान पत्थर में बसता है।
20 दिसंबर 1956 को इस संत ने आखरी सास ली। सारी जिंदगी लगा दी लोगो को समझाने में की भगवान पत्थर में नहीं इंसानो में बसता है। इनके मरणो परांत इनके भक्तो ने वलगाव (जहा गाडगे महाराज ने अपने प्राण त्यागे) में इनका विशाल मंदिर बनवाया। ऐसे सैंकड़ो मंदिर है और उन मंदिरो में इनकी मूर्ति है जिसकी पूजा होती है। बचपन में अनजाने में इस आदमी को भगवान जान मैंने भी कई बार इस मूर्ति के सामने हाथ जोड़े है। बड़ा होने के बाद ही समझ पाया की इसी मूर्तिपूजा के खिलाफ जीवनभर लोगो को जगाकर ही तो यह इंसान संत बना।
दया आती है हम इंसानो की बुद्धि पर। हम सिर्फ व्यक्तिपूजा कर सकते है। न हममे बुद्धि है ऐसे महान लोगो के विचारो को समझने की और न हिम्मत है इन विचारो को अपनाने की। हम इन महात्माओ के सामने नतमस्तक हो यह मान लेते है की हमने कोई पूण्य का काम कर दिया।
गाडगे महाराज का सौभाग्य है की उनके भक्तो द्वारा की गई उनके विचारो की हत्या देखने को वो जीवित नहीं थे। यह सब उनके मरणोपरांत हुआ।
हर कोई इतना सौभाग्यशाली नहीं होता। कई बड़े समाज सुधारक, विचारक आते है। उनके विचारो से प्रभावित लोग उनके अंधभक्त बन जाते है। विचारो की हत्या के बाद बारी आती उस महात्मा के व्यक्तिगत पतन की। अंधभक्तो की फ़ौज अच्छे अच्छे लोगो को अंधा बना देती है।