क्या आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए?
विज्ञान अब तक इतनी प्रगति नहीं कर पाया की हम अपने माता पिता चुन सके. मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जिसे सवर्ण माना जाता है. छात्र जीवन में जब मेडिकल या मनचाहे इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिलने में दिक्कते आई तब आरक्षण से कोफ़्त हुई, खुद को बहोत कोसा भी की मैं क्यों ऐसे परिवार में पैदा हुआ. लेकिन बढ़ती उम्र के साथ परिपक्वता आई, ये समझ आने लगा की हमारे समाज बहोत बड़ी विषमता है, आज भी समाज का एक बड़ा वर्ग उन संसाधनों से वंचित है जो हमें उपलब्ध हो पाए, आज भी उस वर्ग के साथ दुय्यम दर्जे का व्यवहार होता है. समाज में फैली इस विषमता को मिटाना जरुरी है लेकिन क्या आरक्षण इसमे कारगर है? क्या आरक्षण का लाभ वास्तव में उन्हें मिल पा रहा है जिन्हें मिलना चाहिए? और क्या समाज में विषमता को कम करने के लिए शुरू किया आरक्षण ही आज विषमता का मुख्य कारण बन गया है? क्या आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिए?
आरक्षण की शुरुवात
हमारा देश कई सालो तक छुआ छुत का शिकार रहा. समाज की कुछ जातिया पीढ़ी दर पीढ़ी उपेक्षित रही. उन्हें अन्य जातियों की तरह शिक्षा नहीं मिल पाई. पीढ़ी दर पीढ़ी वह अपना वंशानुगत रोजगार करते आये. सामाजिक उपेक्षा और शिक्षा के अभाव में वो कभी दरिद्रता से मुक्त नहीं हो पाए. भारत आजाद हुआ, और भारत के हर नागरिक को समानता का अधिकार मिला. यह हर भारतीय की नैतिक जिम्मेदारी है की हम समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चले, कोई भी समाज केवल संसाधनों की कमी के कारण पीछे न रह जाये. कई पीढ़ियों से उपेक्षित रहे समाज को मुख्य धारा से जोड़ना आसान कार्य नहीं था. सदियो से सामाजिक व्यवस्था में जड़े जमा चुकी छुआछुत की बीमारी को केवल कानून के सहारे तुरंत ख़त्म करना भी आसान नहीं था. पीछड़े वर्ग को शिक्षा का अवसर मिल पाए इसलिए शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की गई, उन्हें नौकरी मिल पाए इसलिए सरकारी नौकरी में आरक्षण दिया गया. संविधान निर्माता बाबासाहेब आंबेडकर को उम्मीद थी की इस व्यवस्था से अगले दस सालो में सामाजिक विषमता समाप्त हो जायेगी इसलिए इस व्यवस्था पर 10 वर्षो बाद पुनर्विचार करने का प्रावधान रखा गया.
आरक्षण का लाभ
आरक्षण के वर्तमान लाभार्थी
आरक्षण पर कोई भी राय बनाने से पहले इस हिस्से को समझना बेहद जरुरी है. मेडिकल, इंजीनियरिंग जैसी उच्च शिक्षा के दाखिले की प्रणाली का उदहारण लेते है. वहा 15% स्थान अनुसूचित जाती के लिए आरक्षित है. 100 में से 15 सिट केवल अनुसूचित जाती के छात्रो को दी जा सकती है. इन 15 स्थानों के लिए प्रतियोगिता में वो हर छात्र है जो अनुसूचित जाती में जन्मा है. अनुसूचित जाती में जन्मे छात्रो में से वो छात्र जिनके माता पिता खुद डॉक्टर, इंजिनियर, वकील या किसी बड़े सरकारी पद पर है उन्हें निश्चित अपनी ही जाती के अन्य छात्रो के मुकाबले अधिक सुविधाए मिलती है, वो केवल जाती से पिछड़े हुए, वास्तव में नहीं. प्रतियोगिता में ऐसे छात्र वास्तव में पिछड़े हुए छात्रो से आगे निकल जाते है और आरक्षित स्थान उन्हें मिल जाता है. वास्तव में पिछड़े हुए परिवार पिछड़े ही रह जाते है.
वर्तमान स्थिति में आरक्षण का अधिक से अधिक लाभ केवल उन्हें मिलता है जो केवल जाती से पिछड़े हुए है वास्तव में नहीं. वास्तव में पिछड़े हुए परिवार आज भी समानता के अधिकार से वंचित है और उन्हें मुख्य धारा में लाने की राजनैतिक इच्छा शक्ति किसी पार्टी के पास नहीं है.
आरक्षण की व्यवस्था होने के बावजूद, केवल जाती से पिछड़े और अन्य सामाजिक पैमानों पर विकसित गिने चुने परिवार इसका लाभ ले पा रहे और वास्तव पिछड़ा हुआ तबका और पिछड़ता जा रहा है. अमानवीय स्थितियों में रहने वाला गरीबी और अशिक्षा से पीड़ित यह तबका तभी मुख्य धारा में आ पायेगा जब उनके समजातीय परिवार जो आरक्षण का लाभ लेकर मुख्य धारा से जुड़ चुके है, आरक्षण का लाभ न ले. जब तक इस व्यवस्था में सुधार नहीं होगा, समाज का एक बड़ा हिस्सा हमेशा के लिए पिछड़ा ही रहेगा.
क्यों विफल रही आरक्षण व्यवस्था?
जिस व्यवस्था की 10 वर्षो बाद समीक्षा होनी थी वो आजादी के 68 सालो बाद भी लागू है. सामाजिक विषमता इन 68 वर्षो में यदि बढ़ी न भी हो तो कम नहीं हुई, गरीब आज भी गरीब है. इस व्यवस्था से शुरुवाती लाभ अवश्य हुआ लेकिन इसके बाद यह लाभ केवल कुछ परिवारों तक ही सिमित रह गया. उपेक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति वही होते हो जो केवल जाती से पिछड़े होते है. उनके परिवार जनो को आरक्षण का लाभ जारी रहे इसलिए वो आरक्षण पर समीक्षा का भी कड़ाई से विरोध करते है. उपेक्षित वर्ग के राजनैतिक प्रतिनिधि अपनी जाती के वास्तव में उपेक्षित परिवारों को मुख्यधारा में लाने के बजाय अपने परिवार के सदस्यों को चुनाव लडवा कर सत्ता में लाने में व्यस्त है?
कौन है उस पेक्षित परिवार का प्रतिनिधि जो आज भी अमानवीय जीवन जीने को मजबूर है, जिसे पढाई लिखाई के संसाधन तो दूर दो वक्त की रोटी भी नहीं मिलती. निश्चित इस लेख के पाठको में से कोई नहीं. इस लेख के पाठको में अपने आप को उनका प्रतिनिधि बताने वाले लोग जरुर हो सकते है जो इस लेख पर तीखी प्रतिक्रियाये भी देंगे. लेकिन मेरा उनसे आग्रह है की वो एक बार जरुर सोचे की वास्तव में उस उपेक्षित परिवार के हको को कौन छीन रहा है? उसके लिए बनाई आरक्षण की व्यवस्था का लाभ कौन उठा रहा है?
क्या है समाधान?
मैं जातिगत आरक्षण का विरोधी कदापि नहीं हु. लेकिन जाती आधारित आरक्षण लेकर जो व्यक्ति डॉक्टर, इंजिनियर बन जाए, किसी बड़े सरकारी औदे पर पहुँच जाए, सत्ता में पहुँच जाए उसे मैं उपेक्षित नहीं मानता. मैं उसे अपराधी मानता हु अपनी जाती के वास्तव में उपक्षित परिवारों का हक़ छिनने का. आवश्यकता है की आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा कर आरक्षित वर्ग के मुख्यधारा में आने के पैमाने तय हो. ताकि इन पैमानों पर खरा उतरने वाला परिवार फिर आरक्षण का लाभ न उठाये. जब ऐसे परिवार प्रतिस्पर्धा से बाहर निकालेंगे तभी आरक्षण का लाभ वास्तव में पिछड़े, उपेक्षित, गरीब परिवारों तक पहुचेंगा. इस तरह की व्यवस्था से 10 वर्षो में न सही अगले कुछ दशको में ऐसा कोई परिवार नहीं बचेगा जो मुख्यधारा से बाहर हो. और इसी तरह आ पायेगी वास्तव में समानता.
यदि आपके पास कोई और बेहतर सुझाव है तो कृपया कमेंट कर अन्यो के साथ साँझा करे.