Politics 

आजाद भारत. और युवा?

इस लेख को पढने से पहले कुछ समय के लिए अपने मष्तिष्क को आजाद करे उन बेडियो से जो हमें आत्मचिंतन करने से रोकती है। एक तो यह खुशफहमी की हम सही है, सर्वज्ञानी है, और दूसरी यह कमजोरी की अब हम बदल नहीं सकते। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है की मैं सर्वज्ञानी हु। जिस दिन हम यह मान ले की कुछ और सिखने को नहीं बचा, हमारी प्रगति रुक जाती है। कॉलेज के दिनों में मुझे यह गलत फहमी थी की मैं ऐसा ही हु, अब बदल नहीं सकता और काफी हद तक सर्वज्ञानी होने की खुशफहमी भी। उसी दौरान श्याम मानव द्वारा आयोजित व्यक्तित्व विकास की एक कार्यशाला में हिस्सा लिया और सबसे पहली बात यही सीखी की मैं बदल सकता हु। इसके बाद काफी आसान हो गया अपनी कमियों को ढूंडना और उन्हें ठीक करना।

क्या हम आजाद है?

तकनिकी भाषा में पूछा जाए तो हाँ। 15 अगस्त 1947 को हम आजाद हो गए और फ़िलहाल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाने जाते है। इस लेख में युवाओ की व्यक्तिगत आजादी के एक खास पहलू पर बात करनी है, इसलिए इस जटिल विषय पर अधिक नहीं लिखूंगा। लेकिन हमारे देश में आज भी समानता नहीं है, चाहे वह अवसरों की बात हो, सामाजिक सम्मान की या अधिकारों की। हम वास्तव में आजाद तब होंगे जब इस देश का हर नागरिक आजादी को महसूस कर सकेगा – जिन्दा रहने की आजादी, बोलने की आजादी, लिखने की आजादी, पढ़ने की आजादी, अपना जीवन अपनी मनमर्जी से जीने की आजादी। जब इस देश में आदमी और औरत में फर्क नहीं किया जायेगा, हिन्दू – मुसलमान में फर्क नहीं होगा, ब्राह्मण – दलित में फर्क नहीं होगा.

देश का भविष्य – युवा

हर देश का युवा उस देश का भविष्य होता है. बड़े बदलाव में कई पीढ़िया गुजर जाती है, और उम्र के एक पड़ाव में आकर हर व्यक्ति को आने वाली पीढ़ी से उम्मीदे होती है। युवा देश की दिशा तय करता है। यदि इस देश की युवा पीढ़ी उन सभी बुराइयों से बचे जो इस देश को कमजोर कर रही है तो देश का भविष्य संवर सकता है।

आजाद सोच

केवल शारीरिक आजादी – घुमने फिरने की आजादी, खाने पिने की आजादी क्या काफी है? क्या हमारी सोच वास्तव में आजाद है? क्या हमारी सोच को भी कोई गुलाम बना सकता है?

निश्चित हमारी सोच को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है बिना हमारे शरीर के साथ कोई छेड़छाड़ करे। सम्मोहन विद्या के बारे में आपने सुना होगा और कई जादूगरी करतबो में देखा भी होगा। हमारे मष्तिष्क को गुलाम बनाने की वह पराकाष्ठा है। लेकिन इसके अलावा भी ऐसे कई प्रभावशाली व्यक्ति है जो हमारी सोच को काफी हद तक नियंत्रित करते है।

प्रशंशक बनाम गुलाम

हममे से अधिकतर लोग किसी नेता, अभिनेता, लेखक, धर्मगुरु इत्यादि के प्रशंशक होते है। कुछ लोग अपने किसी निकट रिश्तेदार, मित्र, शिक्षक के प्रशंशक होते है। ये वो सभी लोग है जिनके पास मौका होता है हमें प्रभावित करने का अपने लेख से, पुस्तक से, अभिनय से, भाषण से इत्यादि। किसी के विचार सुन कर उसका प्रशंसक बनना गुलामी नहीं। लेकिन कई बार हम अपनी सोचने की शक्ति भी उन्हें समर्पित कर देते है, और वहा से शुरू मानसिक गुलामी। जरा सोचिये की धर्मगुरु आपको किस आधार पर राय दे सकता है की आप कौनसा व्यवसाय करे, या एक अभिनेता कैसे राय दे सकता है की आप किस नेता का समर्थन करे? ऐसे विषयो पर संभव है की आपका अपना निर्णय उनकी सलाह से बेहतर हो। किन्तु यदि हम मानसिक तौर पर गुलाम बन गए है तो हम सोचना बंद कर देते है। किसी अभिनेता की अधिकतर फिल्में अच्छी हो सकती लेकिन उसकी सभी फिल्मे अच्छी है, और उसके प्रतिद्वंद्वियों की घटिया ऐसा मान लेना है गुलामी। किसी लेखक के अधिकतर विचार अच्छे हो सकते है, लेकिन वही सर्वज्ञानि है और अन्य लेखक मुर्ख ऐसा मान लेना है गुलामी। किसी नेता की अधिकतर नीतिया सही हो सकती है, लेकिन अन्य सभी नेताओ की नीतिया गलत है ऐसा मान लेना है गुलामी। 

मानसिक गुलामी एक गंभीर समस्या

मेरी समझ के अनुसार मोटे तौर ऐसे कुछ विशिष्ट वर्ग है जो हमारे देश के लिए बड़ी समस्या बन गए है।

1) धर्म और आध्यात्म के नाम पर

इसके सैंकड़ो उदाहरण है। कई ऐसे धर्म गुरु जो केवल असामाजिक ही नहीं बल्कि अपराधिक कार्यो में लिप्त पाये गए। सच्चाई पता लगने के बाद कुछ प्रशंषको ने नए धर्मगुरु ढूंढ लिए लेकिन कइयो ने दोबारा कोई धर्मगुरु बनाने से तौबा कर ली। कुछ गुलामी के स्थिति तक पहुँच चुके लोग आज भी अपने गुरु को भगवान मान उनकी पैरवी करते है। 

2) राजनीति

नेताओ के भक्ति भी हमारे देश मे सामान्य है। नेताओ के मंदिर बनाना, उनकी आराधना करना यहाँ तक की उन्हें जेल होने पर आत्महत्या कर लेना। कई महत्वाकांक्षी लोग इस गुलामी को अपनी व्यक्तिगत उन्नति के लिए चुनते है। लेकिन अधिकतर भोले भाले लोग सिर्फ श्रद्धा के मारे गुलामी में जकड़े रहते है। अपनी अपनी राजनैतिक पसंद होना गलत नहीं है, लेकिन इस हद तक गुलामी की उस नेता के गलत कार्यो को सही साबित करने की जिम्मेदारी भी हम ले ले? और उसके प्रतिद्वंद्वियों को ऐन केन प्रकारेण गलत साबित करने का प्रयास करे? 

हमारा नेता हमारे द्वारा चुना हुआ जन प्रतिनिधि होता है। हम सब की सम्मिलित सोच के अनुसार नीतिया बनाना उसकी जिम्मेदारी है। जिस दिन हर मुद्दे पर अपनी व्यक्तिगत राय बनाना बंद कर दे, हम गुलामी की और बढ़ने लगते है।

इस तरह की मानसिक गुलामी का शिकार जब एक बड़ा वर्ग बन जाए, तो वो अनजाने में उस नेता को तानाशाह बना देता है। इसमे उसका दोष नहीं। आलोचकों का अभाव और हर बात में हामी भरने वालो की भीड़ उस नेता को ये विश्वास दिलाती है, की मेरी हर सोच, मेरा हर बयान, मेरा हर निर्णय सही है, लोकतान्त्रिक है क्योंकि एक बड़ा वर्ग इसका समर्थन कर रहा है। इस सन्दर्भ में एक रोचक कहानी पहले प्रकाशित कर चूका हु। समय हों तो अवश्य पढ़े। अंधभक्त – आपका सबसे बड़ा शत्रु।

3) संचार माध्यमो की गुलामी

पिछले 2 दशको में संचार माध्यमो में तेजी से वृद्धि हुई। दूरदर्शन पर दिन में एक घंटे आने वाले समाचार अब सैंकड़ो चैनल्स पर 24 घंटे आते है। मीडिया को भले लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना गया हो, लेकिन आज भारत में निष्पक्ष मीडिया विलुप्ति की और है। अधिकतर मीडिया चैनल के मालिक या तो कोई नेता होता है, या उद्योगपति। कई चैनल्स में विदेशो का पैसा भी लगा होता है।

न्यूज़ चैनल पर न्यूज़ कम होती है, और व्यूज (उनके विचार) अधिक। कौनसी खबर को दिखाना है और कौनसी खबर दबानी है, यह चैनल तय करता है। किस बहस का शीर्षक क्या है, उसमे कौन हिस्सा ले रहे है, यह भी बहोत मायने रखता है। वो चाहे तो गंभीर समस्या को लेकर धरने पर बैठे हज़ारो लोगो की खबर को दबा दे, उसे ड्रामा घोषित कर दे, या उसे एक आंदोलन में बदल दें। इस विषय पर भी पहले एक लेख लिख चूका हु। मेरी सलाह है की इसे भी पढ़े – The rich control poor brains

आजादी की सालगिरह पर आप सभी को बहोत बहोत बधाई। खास कर युवा मित्रो से मेरा यही आग्रह है की अपनी सोच को आजाद बनाए। संभव है की कई विषयो पर हमारी सोच गलत हो, संभव है समय के साथ हमारे विचार बदलते रहे। किन्तु वो जैसे भी आपके विचार होंगे,  एक आजाद सोच होगी। हर विषय पर अपनी राय, अपने विचार बनाने का प्रयास करे। किसी नेता, अभिनेता, लेखक या धर्मगुरु के अंधभक्त न बने, गुलाम न बने।

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