याकूब की फांसी – बहस के कुछ पहलू

आज तड़के 7 बजे मुंबई में धमाको के दोषी याकूब मेनन को फांसी दे दी गई. फांसी देने से महज कुछ घंटो पहले तक देशभर में इस फांसी को लेकर बहस चलती रही, यहाँ तक की माननीय सर्वोच्च न्यायालय में भी सुनवाई जारी रही. अंतिम फैसला फांसी के हक़ में रहा लेकिन इस फैसले से पहले कई बार न्यायालयों में इस मुद्दे पर बहस हुई, दया याचिकाओ पर विचार किया गया. 22 सालो से चल रही इस जिरह में वो सभी तर्क सामने रखे गए जो इस फांसी के पक्ष और विपक्ष में थे. दुनिया में शायद ही ऐसी कोई मिसाल हो जहा एक आतंकी हमले के दोषी को अपनी बात रखने के लिए इतने मौके मिले हो, इतने सहायक मिले हो. इसके बावजूद यदि अंतिम फैसला फांसी के पक्ष में रहा तो सभी पक्षों को इसका सम्मान करते हुए इस बहस को विराम देना चाहिए. न्यायिक व्यवस्था का उद्देश ही है बहस को विराम देकर फैसला सुनाना. अंतिम फैसले के बाद भी उसी मुद्दे पर बहस जारी रखना इस व्यवस्था में अविश्वास जताने जैसा है.

बहस होनी है तो उन पहलुओ पर हो जो इस बहस के दौरान रखे गए, उन सभी पहलुओ पर हम किसी निर्णय पर पहुंचे ताकि भविष्य में फिर कभी कोई फांसी एक क्रिकेट मैच की तरह न बने, तमाशा न बने. मोटे तौर पर पिछले कुछ दिनों से जारी बहस में मुझे कुछ पहलू नजर आये.

1) पहला पहलू फांसी की सजा को लेकर है. संसद में और पुरे देश में इस विषय को लेकर बहस होनी चाहिए. कुछ लोगो का मानना है की किसी भी इन्सान का जान लेने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए और किसी भी आरोपी को फांसी की सजा देना अमानवीय है. दुनिया भर के कई देशो में मौत की सजा का प्रावधान हटा दिया गया है. इसके विपरीत बहुसंख्य लोगो का मानना है की आतंकी हमले और अमानवीय कृत्यों जैसे जघन्य अपराधियों के लिए इस सजा का प्रावधान होना चाहिए. यह एक लम्बी बहस का मुद्दा है और बेहतर हो की देश में इस मुद्दे पर एक राय बने. याकूब मेनन की फांसी को लेकर जिन बुद्धिजीवियों ने उसकी फांसी रुकवाने के लिए प्रयास किया उन्हें अब यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए.

2) दूसरा पहलु तकनिकी था. कुछ लोग फांसी की सजा के खिलाफ नहीं है लेकिन उनका मानना है की फांसी जैसी सजा मुक़र्रर करने से पहले सभी तकनिकी पहलुओ पर गौर करना चाहिए. सजा पाने वाले को वो सभी मौके मिलने चाहिए जिनका वो कानूनन हक़दार है. याकूब के मामले में कानून के बड़े से बड़े पंडित ने उसके पक्ष में अपनी बात रखी. यहाँ तक की फांसी देने से महज 4 घंटे, आधी रात को पहले देश के सर्वोच्च नयायालय दे द्वार खोले गए. यह एक प्रमाण है इस देश की न्यायिक व्यवस्था की मजबूती का. इस तरह आधी रात को हुई अप्रत्याशित सुनवाई ने पूरी दुनिया के सामने एक मिसाल कायम की है. इस पहलू पर अब और बहस करना बाल की खल नोचने जैसा है. कुछ ऐसे पहलू हो सकते है जिनपर अब भी स्पष्टता बाकी हो (जैसे की किस दया याचिका को दया याचिका माना जाए जिसके बाद फांसी के लिए 14 दिनों का समय दिया जाए). ऐसे मुद्दों पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय स्पष्टता ला सकता है.

3) तीसरा और बेहद खतरनाक पहलू जो इस बहस में दबी आवाज में ही सही सामने आया वो फांसी को धार्मिक रंग देने वाला था. कुछ नेताओ ने तर्क दिया की याकूब की फांसी में इसलिए जल्दबाजी हुई क्योंकि वो मुसलमान है. ये विडम्बना है की जहा एक तरफ कलाम साहब के निधन ने पुरे देश को जोड़ दिया, एक आतंकी की फांसी को ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल किया गया. इस तर्क के उत्तर में दूसरी तरफ से देशभर आज तक दी गई फांसीयो को धर्मो में बाँट कर आंकडे सामने रखे गए. इस तरह की बहस निश्चित देश को बांटने का काम करती है. इस महान देश की अस्मिता और अखंडता को बनाये रखने के लिए न सिर्फ हमें इस तरह की बहस से बचाना चाहिए बल्कि सियासी फायदे के लिए इस तरह के गैर जिम्मेदाराना बयान देने वालो के खिलाफ कोई कानून बनना चाहिए.

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